॥धर्मो रक्षति रक्षितः॥ जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है।
॥धर्मो रक्षति रक्षितः॥
जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्।
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥१६॥ मनुस्मृति अध्याय ८, मन्त्र १६हिन्दी अनुवाद : धर्म ही वस्तुतःसुख एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है। जो व्यक्ति उसका हनन करता है, (धर्म के विरोध में कार्य करता है)। देवता लोग उसे धर्म का उच्छेदक समझते हैं। इसलिए कभी भी धर्म को विनष्ट नहीं करना चाहिए॥१६॥
एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ॥१७॥ मनुस्मृति अध्याय ८, मन्त्र १७हिन्दी अनुवादः वस्तुतः धर्म ही एकमात्र ऐसा मित्र होता है, जो मृत्यु होने पर भी व्यक्ति के साथ जात है; जबकि अन्य सब कुछ शरीर के साथ ही विनाश को प्राप्त हो जाता है॥१७॥
जैसा कि पवित्र
सनातन ग्रन्थों में वर्णित है, “सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे
भद्राणी पश्यन्तु मा कश्चिददु:खभागभवेत्॥” “सभी सुखी हों,
व निरोगी हों, व सभी सदैव माङ्गलिक घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख न भोगना
पड़े, आदि सात्विक भावना के साथ सभी के
मङ्गल की कामना करता है।
इसलिए सनातन को संस्कृत व हिन्दी के साथ-साथ सभी अन्य भाषाओं में भी धर्म ही कहेंगे, उदाहरण के लिए अङ्ग्रेजी में “Dharma”॥
अब सम्प्रदाय क्या है ?
जब हम शास्त्रों (जैसे कि वेद, पुराण, श्रुति-स्मृति, आदि) का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि, धर्म तो मात्र “सनातन” ही है, शेष सभी तो सम्प्रदाय हैं जिसको अङ्ग्रेजी में “Religion” कहते हैं।
Religion, मज़हब या और कोई अन्य शब्द जिससे वह सनातन धर्म की तुलना करते हैं अथवा कर सकते हैं वह सभी सम्प्रदाय सूचक शब्द ही हैं और उनको मानने वाले भी उससे सम्बन्धित साम्प्रदाय से हैं।
कलियुग के तथाकथित सम्प्रदाय (Religion, मज़हब) मनुष्य निर्मित है, इसीलिए
वह स्वार्थ और कट्टरता की बात करते हैं और मन भेद और मत भेद होता है।
प्रमाण स्वरुप जब हम सनातन धर्म शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो कहीं भी वैमनस्यता नहीं मिलेगी, अपितु सदैव ही, “सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु मा कश्चिददु:खभागभवेत्॥” तथा “वसुधैव कुटुम्बकम्” की बात कहते हैं।
धर्म कट्टर नहीं
दृढ़ होता है, कट्टरता स्वार्थ की परिचायक होती है,
जबकी दृढ़ता परमार्थ की।
सनातन धर्म (की शिक्षा) का मूल आधार ही परमार्थ है, बस यह ही समझना है।
अन्य सभी सम्प्रदाय अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं, जिससे की सभी क्षेत्रों में उनका राज हो शासन हो। जबकी सनातन धर्म तो इश भक्ति के सभी सात्विक मार्गों की अनुशंसा करता है।
जो लोग स्वधर्म अर्थात अपना धर्म नहीं जानते, अपनी आस्था को लेकर दृढ़ नहीं रहते, वह बहला फुसला के, आवश्यक्ता अथवा विवशता के कारण या अन्य कारणों से दूसरे सम्प्रदाय में परिवर्तित हो उनकी मान्यताओं को मानने लगते हैं। उनमें से कुछ तो अपने मूल (सनातन धर्म) के ही विरोधी हो जाते हैं और कुछ दोनो को मानने का प्रयास करते हैं जिनकी स्थिति दो नाव पर सवारी करने वाले के जैसी या धोबी के कुत्ते की जैसी (स्थिति) हो जाती है।
गत कुछ वर्षों से कुछ लोग हैं जिनको ये कहते हुए हम सुन सकते हैं कि “Religion” से उपर उठ कर बात करनी चाहिए, ये वही लोग हैं जो या तो पूरी तरह परिवर्तित हो चुके है या दो नावों की सवारी कर रहे होते हैं और या फिर दोनों ही तरह के लोग।
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३५॥श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ०३ श्लोक ३५
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान स्पष्ट् कहते हैं
कि, "अच्छी प्रकार से
आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म की तुलना में गुणरहित होनेपर भी (अपना धर्म)
स्वधर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में (तो) मरना
(भी) कल्याणकारक है (और) दूसरे का धर्म भय
को देनेवाला है, अर्थात भयकारक है॥
श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ०३ श्लोक ३५
(विशेष: उपर की उक्ति उनके लिए है, जिन्होंने मत सम्प्रदाय बदल लिया है मात्र उनके लिए अथवा उनके समर्थकों के लिए)
फिर कहते हैं कि कोई धर्म गलत बात नहीं सिखाता! बिल्कुल सच्ची बात कही आपने, धर्म कभी भी गलत नहीं सिखाता, पर वह धर्म होना चाहिए? धर्म के चोले में सम्प्रदाय नहीं!
भगवतगीता के अनुसार परिवर्तन के बाद तो वह धर्म रहा ही नहीं ।
लोग एक और तर्क देते हैं कि समय के हिसाब से चलो! समय के हिसाब से सब बदलना पड़ता है।
जी हाँ आपने सत्य कहा, और यही होता आया है, किन्तु यदि आपने अपना सनातन धर्म जाना होता तो यह पता होता कि, युगों की युग-युगान्तर की व्यवस्था इसी परिवर्तन के लिए रचा गया है।
वैसे तो सहस्रों उदाहरण होंगे किन्तु जो मैंने अपने अल्प ज्ञान से जाना है वह बता रहा हूँ, हमारे शास्त्रों की स्पष्ट कहा गया है की शास्त्र आज्ञा अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्वधर्म में स्थित रहते हुए किस युग में किस पद्धति की क्या महत्ता है!
सत्य युग में तप की! त्रेता में यज्ञ की! द्वापर में विधिवत पूजन की!
और कलियुग में इश्वर नाम संकीर्तन व सुपात्र को दान देने को ईश भक्ति का मार्ग बताया गया है।
चारों युगों में मात्र कलियुग ही वह है जो इश्वर प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग बताता है।
किन्तु मानव का दुर्भाग्य देखिए कि स्वधर्म त्याग कर दूषित अन्न का सेवन कर दूषित मन, दूषित विचारों व कलुषित आचरणों से जीवन यापन कर रहा है और जब दुःखी होता है तो धर्म व इश निन्दा करता है और ढ़ोंगी व पाखण्डियों के चक्कर में पड़ कर धर्म भ्रष्ट कर रहा है।
अब यदि व्यक्ति
जानना चाहे अथवा धर्म के प्रति जिज्ञासा हो तो क्या करे? स्पष्ट है कि सनातन शास्त्रों का अध्ययन
करें।
मेरा प्रयास यही है कि अपने धर्मजिज्ञासु दर्शकों, श्रोताओं एवं पाठकों को सनातन के विषय में जितनी मेरी क्षमता व मेरा ज्ञान है उसके अनुसार अधिक से अधिक बता सकूँ और आशा है कि जगत जननी पराशक्ति जगदम्बा इस उद्देश्य में अवश्य ही मेरा सहयोग देंगी।
यह मेरा निजी
अनुभव है कि हमारा अपना व्यक्ति ही हमारा विरोधी है, इन शांति दूतों और धर्म परिवर्तन करने वाली Missionaries,
या कौम की रक्षा का हवाला दे कर धर्म
परिवर्तन करने वालों को हमारा आपसी मतभेद ही बल देता है और जब चर्चा करना चाहो तो
या तो लोग मौन हो जाते हैं अथवा चर्चा में भाग ही नहीं लेते।
कुतर्क देकर स्वघोषित विजेता बन जाते हैं।
स्वयं को विद्वान
दिखाने वाला कौन है- एक हिन्दु !
और इन सभी बातों का कुतर्क करके विरोध करने वाले भी बुद्धिपरजीवी भी कौन होंगें - वही हिन्दू !
अवश्य कर सकते हैं आईए अपने सनातन धर्म को जानने का प्रयास करें और अपने परिजनों व मित्रों को भी बताएँ।
जय जगतजननी माँ जगदम्बा !!
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